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Rose Exihibition-2010, Bhopal

Saturday, November 29, 2008

अनदेखी हत्या



अब मैं हत्या करता हूँ
तुम्हारी उन भावनाओं की
जिन्हे मैनें पोषित किया था...

तुम्हारे उन विचारों की,
जो मेरे हृदय में संजोयी हुई हैं...

तुम्हारी उस स्मृति की,
जो अभी भी तुम्हारी उपस्थिति का एहसास कराती है...

तुम्हारी उस गन्ध की,
जो आज भी मुझे याद है...

तुम्हारे उस स्पर्श का
जो अभी भी मुझे सजीव लगता है...

तुम्हारे उस आगोश की
जो आज भी मुझे अपने लिए
सबसे सुरक्षित कोना जान पड़ता है...

तुम्हारे उस गोद की
जहाँ आज भी मैं अपनी चिर अनिद्रा में
निद्रामग्न हो जाता हूँ...

इसलिए,
अब मैं हत्या करता हूँ, अपनी
क्योंकि तुम अपने इन सभी रूपों में
काबिज हो, मेरी सांसों में
उनके अंतरालों में
मेरी स्मृतियों पर
और मेरे स्वपनों पर...

2 comments:

Amit K Sagar said...

एक उम्दा रचना. काबिले-तारीफ़. जारी रहें.
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Anonymous said...

भाई बहुत अच्छी कविता लिखी है......

आप ऐसा अच्छा लिखते हो पहले पत्ता नही था !!!

लिख्ते रहो !!