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Rose Exihibition-2010, Bhopal

Saturday, November 29, 2008

जीने की कोशिश



हर दिन एक जीने की कोशिश करता हूँ

अपने स्मृति के सीपियों से
तुम्हारी यादों के मोती चुनता हूँ.
अपने स्वपनों में कल्पना के ताने-बाने से
रचित दुनिया में इन मोतियों को सजाता हूँ.
जिस स्वपनिल संसार में
तुम जीना चाहती थी, पूरी एक ज़िन्दगी,
उड़ना चाहती थी, खुले आसमान में,
हँसना चाहती थी एक उन्मुक्त हँसी,
सोना चाहती थी एक बेफिक्र नींद
कहना चाहती थी अपने मन की बात,
बेबाक ढ़ंग से.
गुम होना चाह्ती थी
किसी की बड़ी सी बाँहों में,
करना चाहती थी किसी से प्यार
जो तुम्हारा है
बसाना चाहती थी एक संसार
जिसमें तुम्हारे सपने बसते थे...
सपनों के इस संसार को
रचने, बसाने, संवारने, सजाने की
एक कोशिश में हर दिन मर-मर कर जीता हूँ.
डरता हूँ सपना कहीं खत्म ना हो जाए.

जीने की कोशिश में मरना
मरने के डर से जीना
वक़्त कट रहा है, इन्हीं दो पंक्तियों के बीच...

जीवन है भ्रम का



जीवन है भ्रम का
सुख - दुख
आशाएं, अभिलाषाएं
रूप हैं सब इसकी।
मुक्ति व्यक्ति को मिल न सका
कभी इच्छाओं की लहरों में
भावनाओं के समुद्र में।
इच्छाओं ने है फंसाया
रिश्ते नातों के भंवर में।
कौन किसी का है हो सका
इस जग में
क्या कोई उसे है मिल सका
चाहा जिसे इस जग में ।
नहीं मिलता यहाँ चाहने से कुछ
भीख न मिलती प्यार की
माँगने से भी है नहीं कुछ मिलता
इस जग में है सब कुछ बिकता।
लगा लो मोल किसी का
है अगर गाँठ में मुद्रा।
पर,
प्रेम जो अपने भीतर से उपजे
किस बाज़ार में बिक पाए
क्या कोई उसका मोल लगाए
कितनी मुद्रा दे पाए ?
जीवन है भ्रम का
है प्रेम नहीं अलग इससे
जीवन में है प्रेम
मगर,
जीवन है भ्रम का...

अनदेखी हत्या



अब मैं हत्या करता हूँ
तुम्हारी उन भावनाओं की
जिन्हे मैनें पोषित किया था...

तुम्हारे उन विचारों की,
जो मेरे हृदय में संजोयी हुई हैं...

तुम्हारी उस स्मृति की,
जो अभी भी तुम्हारी उपस्थिति का एहसास कराती है...

तुम्हारी उस गन्ध की,
जो आज भी मुझे याद है...

तुम्हारे उस स्पर्श का
जो अभी भी मुझे सजीव लगता है...

तुम्हारे उस आगोश की
जो आज भी मुझे अपने लिए
सबसे सुरक्षित कोना जान पड़ता है...

तुम्हारे उस गोद की
जहाँ आज भी मैं अपनी चिर अनिद्रा में
निद्रामग्न हो जाता हूँ...

इसलिए,
अब मैं हत्या करता हूँ, अपनी
क्योंकि तुम अपने इन सभी रूपों में
काबिज हो, मेरी सांसों में
उनके अंतरालों में
मेरी स्मृतियों पर
और मेरे स्वपनों पर...

Friday, November 21, 2008

गुलज़ार की एक कविता : हमदम


मोड़ पे देखा है वह बूढ़ा सा एक पेड़ कभी?
मेरा वाकिफ है, बहुत सालों से जानता हूँ

जब मैं छोटा था तो इक आम उड़ाने के लिए
परली दीवार से कन्धों पे चढ़ा था उसके
जाने दुखती हुई किस शाख से जा पाँव लगा
धाड़ से फेंक दिया था मुझे नीचे उसने
मैंने खुन्नस में बहुत फेंके थे पत्थर उस पर

मेरी शादी पे मुझे याद है शाखें देकर
मेरी वेदी का हवन गर्म किया था उसने

और जब हामला थी 'बीबा' तो दोपहर में हर दिन
मेरी बीवी की तरफ़ कैरियां फेंकी थी इसी ने

वक्त के साथ सभी फूल, सभी पत्ते गए
तब भी जल जाता था जब मुन्ने से कहती 'बीबा'
'हाँ, उसी पेड़ से आया है तू, पेड़ का फल है'
अब भी जल जाता हूँ, जब मोड़ गुजरते में कभी
खांसकर कहता है, 'क्यों, सर के सभी बाल गए?'

सुबह से काट रहे हैं वह कमेटी वाले
मोड़ तक जाने की हिम्मत नहीं होती मुझको
- गुलज़ार

Tuesday, November 18, 2008

Requiescence


Tonight I can write
My sorrowful heart
That bleeds willingly
To keep me living.
As I gaze
The mourning moon,
Can see her face.
The lips are missing
In the sky
And on the earth, mine.
Don’t search
Let them rest
Somewhere.
Those eyes shed pale fluid
May be decayed grief
Or marrow of desire.
And I lick it here
To taste
What is not.

Sunday, November 16, 2008

एक चाहत


मैं चाहता हूँ कि
हम अगले जनम में
चिड़िया बन जाएं.
क्योंकि, तब हमारे पास
उड़ने के लिए इस अनंत
गगन की गहराइयाँ होंगी.
जहाँ हम साथ-साथ रह सकेंगे
साथ साथ दाना चुगने जा सकेंगे
अपना घोंसला बनाने के लिए
खर-पतवार और तिनके चुनने की
मशक्कत साथ साथ कर सकेंगे.
तब हमें किसी वैसे घर की
ज़रूरत नहीं पड़ेगी
जो घर कम,
गोदाम ज्यादा लगता है.
हमारे घोंसले यानि घर में
सिर्फ़ दो ही सामान रहेंगे,
तुम और मैं यानि हम.
सर्दियों में हम एक-दूसरे के लिए
कम्बल भी बन जाएंगे.
बारिश में खुले आकाश में
साथ साथ भीगते हुए घूमेंगे.
बारिश के बाद
सफेद बादलों से झरती धूप में
अपने फरों को सुखाएंगे.
तब तुम्हें भी कहीं जाने की जल्दी नहीं होगी,
और मुझे भी ऎसा नहीं लगेगा कि
बस आने वाले कुछ पलों बाद
तुम्हारा साथ छूटने वाला है
और तब हमारे पास
किसी सामाजिक मान्यताओं की
सीमा तोड़ने की बाध्यता भी नहीं होगी.
और तब हमारी नैतिकता पर
ना तो हम कोई सवाल उठाएंगे
ना ही कोई दूसरा...

Thursday, November 13, 2008

अपने अकेलेपन में...



कल वह चला गया। उसका यहाँ आना और जाना बिल्कुल वैसा ही था जैसे शाँत समुद्र में ज्वार भाटे का आना जाना... ज्वार भाटे भी नियमित रूप से आते हैं लेकिन हम हमेशा मन ही मन सोचते हैं कि कहीं कुछ अनोखा, कुछ विचित्र सा घट सकता है, इन गगनचुम्बी लहरों के पीछे... लहरों के पीछे कभी कुछ नहीं घटित होता है। उफान थमने पर समुद्र फिर से वैसा ही शाँत, धीर-गम्भीर दिखने लगता है जैसे कभी कुछ हुआ ही नहीं हो। पर क्या वास्तव में ऎसा होता है? कहीं कुछ घटित नहीं होता, कहीं कुछ नहीं बदलता..! नहीं, घटित होता है, बदलता है, लेकिन वह समुद्र की छाती में भीतर ही भीतर सुलगता है, फिर कभी बाहर आने के लिए, समुद्र की निस्सीम नीरवता को भेद कर।

शाँत समुद्र को देख कर कभी किसी बड़ी लहर के आने का अन्देशा, उत्सुकता और इंतजार हमेशा बना रहता है, वैसा ही भ्रम अभी भी मुझे कई दफ़े होता है। ऎसा प्रतीत होता है, मानो, वह यहीं कहीं आसपास है, कुछ कह रहा है या सामने के दरवाजे से अभी कमरे के अन्दर आ जाएगा। यह जानते हुए कि यह कोरा भ्रम है, फिर भी इस भ्रम में अपने आपको डाले रहने में आनन्द आता है, सुख मिलता है। क्या हम सभी के नितांत अपने अपने भ्रम नहीं हैं जिनमें हम अपने अपने सुखों का संसार बुनते गुनते रह्ते हैं?

अपने निविड़ अकेलेपन में यह भ्रम रिक्तता को भरता है, रात के अन्धेरे में बिस्तर पर उसके सजीव स्पर्शों का एह्सास कराता है। उसके सामने उससे बहुत कम बातें होती हैं, ऎसा लगता है जो कुछ कहना है उसके लिए कोई शब्द ही नहीं है, बातें एक दूसरे की मौन मंत्रणाओं को समझने से होती हैं। उसके सामने नहीं रहने पर बहुत सी बातें होती हैं. सब कुछ सुना देता हूँ उसे, कुछ भी नहीं छोड़ता. सारे गिले-शिकवे, अगणित इच्छाऎं, अपरिमित दु:ख, उसके साथ रहने का अपरिभाषित सुख, यहाँ तक की जिस भ्रम और अकेलेपन में यह सब कुछ होता है उसे भी बता देता हूँ...

लेकिन, भ्रम तो भ्रम ही है, कब तक सच का रूप धारण कर सकता है? प्रचंड इच्छाओं के हाहाकार से रेत के महल की भाँति भ्रम का संसार भी यथार्थ के मरूथल में कहीं विलीन हो जाता है। तब बचती हैं इस भ्रम में घटित होने वाली घटनाएं, जो अभी तक सुलझी, साफ-सुथरी दिख रहीं थी, अब इस कदर उलझ गई हैं कि इनके महाजाल से निकलना असंभव जान पड़ता है.

इच्छाओं और विचारों के इस भंवरजाल में फँसने के बाद की स्थिति बिल्कुल वैसी ही हो जाती है जैसे मछुआरे के जाल में फँसी मचली की, जो जाल से निकलने के लिए हर बार इस उम्मीद से छलाँग लगाती है और वापस जाल में आ गिरती है कि इस बार तो शायद मुक्ति मिल ही जाए. उस नादान को तो यह भी मालूम नहीं होता कि यह निर्मोही मछुआरा ही उसका परम मुक्तिदाता है जो उसे हर तरह के जाल से हमेशा के लिए मुक्त कर देगा...