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Rose Exihibition-2010, Bhopal

Saturday, October 29, 2011

ज़िन्दगी


भीगा आसमां, सूखी धरती
भीगा मन, सूनी आँखे, सूखे आँसू
भीगे बोल, सूखी ज़बान
भीगा सा फ़साना, रूखी सी हक़ीकत
ज़िन्दगी
थोड़ी सी हक़ीकत, थोड़े से फ़साने
कहीं भीगी, कहीं सूखी
कुछ करने, कुछ ना करने
कुछ कहने, कुछ सुनने
कुछ समझने, कुछ समझ कर भी ना समझने
जो ख़ुद ना समझे, उसे औरों को समझाने की
एक नम सी कहानी

Friday, July 9, 2010

ज्वरग्रस्त कवि का प्रलाप

किसी गृहवधू द्वारा धूप में
कुंए की मुंडेर पर विस्मृत
कांसे के कलश जैसा

मैं तप रहा हूँ, देवि
यह ज्वर जो किसी पंहसुल सा
पंसलियों में फँसा है.

स्फटिक के मनकों जैसी स्वेद बिन्दुओं से
भरी हैं पूरी देह.
आँखों में रक्त और भ्रूमध्य
क्रोध के त्रिशूल का चिन्ह.

दादे के ज़माने की रजाई के
सफ़ेद खोल जैसा पारदर्शी आकास.
नीचे कुंए में जल पर
किसी एकाकी कव्वे की
रात्रिकालीन उड़नसैर का बिम्ब
पड़ता हैं चन्द्रमा के ऊपर.

ठहरों थोड़ी देर और
बैठे रहो, जल में झांकती
अपनी श्याम मुखच्छवियाँ
और बात करों बंधुत्व से भरी

मेरा क्या हैं?
मैं तो मात्र ताप ही ताप हूँ.
पारे से नाप सकती हो मुझे
किन्तु तुम आम्रतरू की छांह
कठिन हैं नापना जिसकी
शीतलता, बस अनुभव ही अनुभव हैं.
तुम्हे तो होना था
अगस्त्य मुनि का कमण्डलु.

तुम्हे सुनकर यों लगता हैं
जैसे नहाकर आया हूँ होशंगाबाद की
नर्मदा में, ठेठ जेठ के अपरान्ह.

चलो ठीक हैं, तुम्हारे पाँव व्याकुल हैं.
जाओ,
तिमिर में लगी अपनी शय्या पर
जहाँ सिरहाने धरा हैं पानी से भरा लोटा.

मेरा क्या हैं, तुम्हारे शब्दों के सीताफल
सहेज लूँगा पकने को
गेहूं से भरी कोठी में.

देखो बातों में लगा लिया तुमने
और मैं भूल गया अपने ज्वरग्रस्त देह की धूजन

तुम जाओ,
उपनिषदों की पोथी का तकिया बनाकर
सो जाओ.

Sunday, March 15, 2009

एक उपन्यास के बहाने आतंकवाद पर एक चर्चा


पिछले दिनों गीतांजली श्री का एक महत्वपूर्ण उपन्यास "खाली जगह" चर्चा का विषय बना है. पिछले ही दिनों मुम्बई में आतंकवादी हमला हुआ जिसमें सैकड़ों लोगों को अपनी जान गँवानी पड़ी और लगभग तीन दिनों तक मुम्बई पूरी तरह से आतंक के गिरफ्त में रही. इस कांड को मीडिया ने अपनी तरह से दिखाया और लोगों ने उसे देखा. शायद ज्यादातर लोगों ने इस कांड को एक लाईव फ़िल्म की तरह देखा और इस मीडिया प्रसारित भय से भयभीत न होकर इसे एक मनोरंजन की तरह देखा. जबकि उपन्यास में भी आतंकवाद और उससे जनित भय का ही विवरण है, लेकिन यह भय आपको वाकई भयभीत करता है, यहाँ आप कोई सस्ता और आसान मनोरंजन का साधन नहीं ढूंढ पाएंगे, यहाँ आपको एक गहन दुख:, भय और व्यक्ति के अंतर्विरोधों से गुजरना पड़ता है.
आतंक और भय के इन विभिन्न आयामों पर मदन सोनी जी और दीपेन्द्र जी ने "खाली जगह" को केन्द्र में रख कर लगातार कई कड़ियों में लम्बी बातचीत की.
इस पूरी बातचीत पर आधारित एक लिखित दस्तावेज भी जल्द ही आपके सामने होगा. इस पर मदन जी अभी काम कर रहे हैं.

Friday, December 5, 2008

एक सवाल



आजकल,
हर आईना पूछता है मुझसे,
कि वो तेरा हमराज कहाँ गया!
जो कभी तेरे काँधे के कोनों से,
तो कभी तेरे बाहों के घेरे से
मचल कर झाँका करता था!

मन्दिरों की सीढियाँ पूछती हैं मुझसे
कि वो तेरा साथी कहाँ गया,
जो कभी तेरे साथ यहाँ बैठता था!

हर राह पूछती है मुझसे
कि वो तेरा हमसफर कहाँ गया,
जो तेरे साथ यहाँ से गुजरता था!

ये चाँद पूछता है मुझसे
कि वो तेरा हमनज़र कहाँ गया,
जिसकी नज़रों से
कभी तू मेरे नज़ारे देखता था!

दिन के उजाले पूछते हैं मुझसे
कि तेरा वो हमसाया कहाँ गया,
जो कभी तेरे आगे, कभी तेरे पीछे
तो कभी तेरे साथ साथ चलता था!

मेरी अंगुलियाँ पूछती हैं मुझसे
कि वो दाँतों से कुतरे छोटे नाखुनों वाले,
नन्हीं नाजुक अंगुलियों वाले,
हाथ कहाँ गए!
जिनके गरम कोमल निर्दोष स्पर्श
आज भी ज़िन्दा हैं तेरी हथेलियों में!


मेरी रातों के सन्नाटे पूछते हैं मुझसे,
कि वो तेरा हमज़ुबां कहाँ गया,
जिसकी पिछली सर्द रातों की फुसफुसाहट
आज भी गूंजती है तेरे कानों में!

वो कहते हैं
मैं अन्धेरों में चलता हूँ!

मैं पूछता हूँ
ये अन्धेरे मुझे किसने बख्शे...

Saturday, November 29, 2008

जीने की कोशिश



हर दिन एक जीने की कोशिश करता हूँ

अपने स्मृति के सीपियों से
तुम्हारी यादों के मोती चुनता हूँ.
अपने स्वपनों में कल्पना के ताने-बाने से
रचित दुनिया में इन मोतियों को सजाता हूँ.
जिस स्वपनिल संसार में
तुम जीना चाहती थी, पूरी एक ज़िन्दगी,
उड़ना चाहती थी, खुले आसमान में,
हँसना चाहती थी एक उन्मुक्त हँसी,
सोना चाहती थी एक बेफिक्र नींद
कहना चाहती थी अपने मन की बात,
बेबाक ढ़ंग से.
गुम होना चाह्ती थी
किसी की बड़ी सी बाँहों में,
करना चाहती थी किसी से प्यार
जो तुम्हारा है
बसाना चाहती थी एक संसार
जिसमें तुम्हारे सपने बसते थे...
सपनों के इस संसार को
रचने, बसाने, संवारने, सजाने की
एक कोशिश में हर दिन मर-मर कर जीता हूँ.
डरता हूँ सपना कहीं खत्म ना हो जाए.

जीने की कोशिश में मरना
मरने के डर से जीना
वक़्त कट रहा है, इन्हीं दो पंक्तियों के बीच...

जीवन है भ्रम का



जीवन है भ्रम का
सुख - दुख
आशाएं, अभिलाषाएं
रूप हैं सब इसकी।
मुक्ति व्यक्ति को मिल न सका
कभी इच्छाओं की लहरों में
भावनाओं के समुद्र में।
इच्छाओं ने है फंसाया
रिश्ते नातों के भंवर में।
कौन किसी का है हो सका
इस जग में
क्या कोई उसे है मिल सका
चाहा जिसे इस जग में ।
नहीं मिलता यहाँ चाहने से कुछ
भीख न मिलती प्यार की
माँगने से भी है नहीं कुछ मिलता
इस जग में है सब कुछ बिकता।
लगा लो मोल किसी का
है अगर गाँठ में मुद्रा।
पर,
प्रेम जो अपने भीतर से उपजे
किस बाज़ार में बिक पाए
क्या कोई उसका मोल लगाए
कितनी मुद्रा दे पाए ?
जीवन है भ्रम का
है प्रेम नहीं अलग इससे
जीवन में है प्रेम
मगर,
जीवन है भ्रम का...

अनदेखी हत्या



अब मैं हत्या करता हूँ
तुम्हारी उन भावनाओं की
जिन्हे मैनें पोषित किया था...

तुम्हारे उन विचारों की,
जो मेरे हृदय में संजोयी हुई हैं...

तुम्हारी उस स्मृति की,
जो अभी भी तुम्हारी उपस्थिति का एहसास कराती है...

तुम्हारी उस गन्ध की,
जो आज भी मुझे याद है...

तुम्हारे उस स्पर्श का
जो अभी भी मुझे सजीव लगता है...

तुम्हारे उस आगोश की
जो आज भी मुझे अपने लिए
सबसे सुरक्षित कोना जान पड़ता है...

तुम्हारे उस गोद की
जहाँ आज भी मैं अपनी चिर अनिद्रा में
निद्रामग्न हो जाता हूँ...

इसलिए,
अब मैं हत्या करता हूँ, अपनी
क्योंकि तुम अपने इन सभी रूपों में
काबिज हो, मेरी सांसों में
उनके अंतरालों में
मेरी स्मृतियों पर
और मेरे स्वपनों पर...

Friday, November 21, 2008

गुलज़ार की एक कविता : हमदम


मोड़ पे देखा है वह बूढ़ा सा एक पेड़ कभी?
मेरा वाकिफ है, बहुत सालों से जानता हूँ

जब मैं छोटा था तो इक आम उड़ाने के लिए
परली दीवार से कन्धों पे चढ़ा था उसके
जाने दुखती हुई किस शाख से जा पाँव लगा
धाड़ से फेंक दिया था मुझे नीचे उसने
मैंने खुन्नस में बहुत फेंके थे पत्थर उस पर

मेरी शादी पे मुझे याद है शाखें देकर
मेरी वेदी का हवन गर्म किया था उसने

और जब हामला थी 'बीबा' तो दोपहर में हर दिन
मेरी बीवी की तरफ़ कैरियां फेंकी थी इसी ने

वक्त के साथ सभी फूल, सभी पत्ते गए
तब भी जल जाता था जब मुन्ने से कहती 'बीबा'
'हाँ, उसी पेड़ से आया है तू, पेड़ का फल है'
अब भी जल जाता हूँ, जब मोड़ गुजरते में कभी
खांसकर कहता है, 'क्यों, सर के सभी बाल गए?'

सुबह से काट रहे हैं वह कमेटी वाले
मोड़ तक जाने की हिम्मत नहीं होती मुझको
- गुलज़ार

Tuesday, November 18, 2008

Requiescence


Tonight I can write
My sorrowful heart
That bleeds willingly
To keep me living.
As I gaze
The mourning moon,
Can see her face.
The lips are missing
In the sky
And on the earth, mine.
Don’t search
Let them rest
Somewhere.
Those eyes shed pale fluid
May be decayed grief
Or marrow of desire.
And I lick it here
To taste
What is not.

Sunday, November 16, 2008

एक चाहत


मैं चाहता हूँ कि
हम अगले जनम में
चिड़िया बन जाएं.
क्योंकि, तब हमारे पास
उड़ने के लिए इस अनंत
गगन की गहराइयाँ होंगी.
जहाँ हम साथ-साथ रह सकेंगे
साथ साथ दाना चुगने जा सकेंगे
अपना घोंसला बनाने के लिए
खर-पतवार और तिनके चुनने की
मशक्कत साथ साथ कर सकेंगे.
तब हमें किसी वैसे घर की
ज़रूरत नहीं पड़ेगी
जो घर कम,
गोदाम ज्यादा लगता है.
हमारे घोंसले यानि घर में
सिर्फ़ दो ही सामान रहेंगे,
तुम और मैं यानि हम.
सर्दियों में हम एक-दूसरे के लिए
कम्बल भी बन जाएंगे.
बारिश में खुले आकाश में
साथ साथ भीगते हुए घूमेंगे.
बारिश के बाद
सफेद बादलों से झरती धूप में
अपने फरों को सुखाएंगे.
तब तुम्हें भी कहीं जाने की जल्दी नहीं होगी,
और मुझे भी ऎसा नहीं लगेगा कि
बस आने वाले कुछ पलों बाद
तुम्हारा साथ छूटने वाला है
और तब हमारे पास
किसी सामाजिक मान्यताओं की
सीमा तोड़ने की बाध्यता भी नहीं होगी.
और तब हमारी नैतिकता पर
ना तो हम कोई सवाल उठाएंगे
ना ही कोई दूसरा...

Thursday, November 13, 2008

अपने अकेलेपन में...



कल वह चला गया। उसका यहाँ आना और जाना बिल्कुल वैसा ही था जैसे शाँत समुद्र में ज्वार भाटे का आना जाना... ज्वार भाटे भी नियमित रूप से आते हैं लेकिन हम हमेशा मन ही मन सोचते हैं कि कहीं कुछ अनोखा, कुछ विचित्र सा घट सकता है, इन गगनचुम्बी लहरों के पीछे... लहरों के पीछे कभी कुछ नहीं घटित होता है। उफान थमने पर समुद्र फिर से वैसा ही शाँत, धीर-गम्भीर दिखने लगता है जैसे कभी कुछ हुआ ही नहीं हो। पर क्या वास्तव में ऎसा होता है? कहीं कुछ घटित नहीं होता, कहीं कुछ नहीं बदलता..! नहीं, घटित होता है, बदलता है, लेकिन वह समुद्र की छाती में भीतर ही भीतर सुलगता है, फिर कभी बाहर आने के लिए, समुद्र की निस्सीम नीरवता को भेद कर।

शाँत समुद्र को देख कर कभी किसी बड़ी लहर के आने का अन्देशा, उत्सुकता और इंतजार हमेशा बना रहता है, वैसा ही भ्रम अभी भी मुझे कई दफ़े होता है। ऎसा प्रतीत होता है, मानो, वह यहीं कहीं आसपास है, कुछ कह रहा है या सामने के दरवाजे से अभी कमरे के अन्दर आ जाएगा। यह जानते हुए कि यह कोरा भ्रम है, फिर भी इस भ्रम में अपने आपको डाले रहने में आनन्द आता है, सुख मिलता है। क्या हम सभी के नितांत अपने अपने भ्रम नहीं हैं जिनमें हम अपने अपने सुखों का संसार बुनते गुनते रह्ते हैं?

अपने निविड़ अकेलेपन में यह भ्रम रिक्तता को भरता है, रात के अन्धेरे में बिस्तर पर उसके सजीव स्पर्शों का एह्सास कराता है। उसके सामने उससे बहुत कम बातें होती हैं, ऎसा लगता है जो कुछ कहना है उसके लिए कोई शब्द ही नहीं है, बातें एक दूसरे की मौन मंत्रणाओं को समझने से होती हैं। उसके सामने नहीं रहने पर बहुत सी बातें होती हैं. सब कुछ सुना देता हूँ उसे, कुछ भी नहीं छोड़ता. सारे गिले-शिकवे, अगणित इच्छाऎं, अपरिमित दु:ख, उसके साथ रहने का अपरिभाषित सुख, यहाँ तक की जिस भ्रम और अकेलेपन में यह सब कुछ होता है उसे भी बता देता हूँ...

लेकिन, भ्रम तो भ्रम ही है, कब तक सच का रूप धारण कर सकता है? प्रचंड इच्छाओं के हाहाकार से रेत के महल की भाँति भ्रम का संसार भी यथार्थ के मरूथल में कहीं विलीन हो जाता है। तब बचती हैं इस भ्रम में घटित होने वाली घटनाएं, जो अभी तक सुलझी, साफ-सुथरी दिख रहीं थी, अब इस कदर उलझ गई हैं कि इनके महाजाल से निकलना असंभव जान पड़ता है.

इच्छाओं और विचारों के इस भंवरजाल में फँसने के बाद की स्थिति बिल्कुल वैसी ही हो जाती है जैसे मछुआरे के जाल में फँसी मचली की, जो जाल से निकलने के लिए हर बार इस उम्मीद से छलाँग लगाती है और वापस जाल में आ गिरती है कि इस बार तो शायद मुक्ति मिल ही जाए. उस नादान को तो यह भी मालूम नहीं होता कि यह निर्मोही मछुआरा ही उसका परम मुक्तिदाता है जो उसे हर तरह के जाल से हमेशा के लिए मुक्त कर देगा...

Friday, October 31, 2008

कनुप्रिया : प्रेम की सशक्त अभिव्यक्ति


देश की आज़ादी के बाद उभरे साहित्यकारों में डॉ. धर्मवीर भारती का एक विशिष्ट स्थान है। 'कनुप्रिया' भारती की अद्वित्तीय काव्य कृति है। कई साहि‍त्य वि‍श्लेषकों ने 'कनुप्रिया' और भारती के नाटक 'अंधायुग' की तुलना एक दूसरे से की है। 'कनुप्रिया' में राधा का प्रेम है। 'अंधायुग' में युद्ध की विनाशलीला का विरोध है। कविता की विधा में भारती के भावुक और रोमांटि विचारों का स्पष्ट दर्शन होता है। भारती के अधिकांश साहि‍त्य में भावुकता और रोमांस का पुट है। उनके सारे चिंतन और दर्शन में भी यह बात साफ झलकती है। 'कनुप्रिया' भारती के मौलि स्वभाव का दर्पण है। 'कनुप्रिया' की राधा कृष्ण को प्या करती है, लेकि वह कृष्ण के युद्धरत रूप का विरोध करती है। इस कृति में भारती ने राधा के माध्यम से कृष्ण द्वारा अर्जुन को दि गए गीता के उपदेशों को प्रेम के सामने तुच्छ बताते हुए उनकी सत्यता को भी चुनौती दे दी है।
'अज्ञेय' ने 'कनुप्रिया' को भारती की 'बुद्धिगत उपलब्धि' माना है। यहाँ बुद्धिपक्ष पर रागात्म कृतिका जबरदस्त प्रभाव है। 'कनुप्रिया' इसी रागात्मक पक्ष की बहुत ही भावुक और सशक्त अभि‍व्यक्ति है। प्रभाकर श्रोत्रिय ने 'कनुप्रिया' को भारती की शीर्षस्थ कृतिबताया है।
डॉ. धर्मवीर भारती बीसवीं सदी के हि‍न्दी साहि‍त्य के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। उनकी कृतियों में 'कनुप्रिया' भी ऎसा ही एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर है।

Thursday, October 30, 2008

धुन्ध के पार

दिन के दूसरे पहर का अवसान होने वाला है, तीसरे पहर की शांत और नरम धूप अपने होने का आभास दे रही है. भोपाल और मार्च के महीने में दो पहरों के इस संक्रमण काल की बेला में धुन्ध की उपस्थिति एक आश्चर्य से कम नहीं लगती है. 14 फरवरी 'वेलेंटाइन डे' के बाद से ही भोपाल लगातार गरम होने लगा था. मार्च 2 और 3 तक तो इतना गरम हो गया था कि सर्दी के दिनों की बातें अतीत की बातें लगने लगीं थी. लेकिन कल तक जिस सूर्य की किरणें दिन के इस समय घोर कष्टप्रद लगती थीं, वही अब सुखद लग रही हैं . जो धूप कल तक चमकती थी, वह आज ऎसी लग रही है मानो किसी काले पारदर्शी काँच के टुकड़े से छन कर आ रही है.
पूरे वातावरण में एक अजीब तरह की शांति छायी है और इस शांति के उपर धुन्ध. कुछ आवाज़ें आती हैं लेकिन ऎसा लगता है ये आवाज़ें भी कहीं किसी धुन्ध से छन कर धुन्धली होती हुई, हवा में तिरती हुई आ रही हैं.
यह धुन्ध, इसके पीछे से आती धुन्धली आवाज़ें और उनके पीछे दिखता अपना धुन्धला अतीत - बार-बार यह कहता है कि उसका भी वर्तमान था और इस वर्तमान में भी उसकी जगह है. अतीत हमेशा ही प्यारा, सुखद और मनभावन लगता है, चाहे वह कितनी ही बड़ी त्रासदी क्यों न हो. क्या अतीत भी सुखद इसीलिए नहीं लगता है कि वह भी कहीं (स्मृतियों) से छन कर आता है, इसकी तीव्रता भी धुन्ध से छनकर आती सूरज की किरणों की भाँति नरम हो जाती है, वह अपने वर्तमान की पूर्ण प्रचंड तीव्रता के साथ इस वर्तमान में नहीं आता है...
वातावरण के धुन्ध से परे अतीत के गहरे धुन्धलके में जहाँ वह काफी धुन्धला दिखता है, लेकिन उसकी उपस्थिति का एहसास उतना ही सजीव जान पड़ता है, शायद इतना कि इस दो पहरों के बीच की बेला में उसके स्पर्शों का भ्रम होता है.
ऎसा मौसम उसे बहुत पसन्द है. इस मौसम में उसका मिज़ाज काफी रूमानी रहता है, हर चीज़ अच्छी लगती है उसे. जो चीज़ें उसे अच्छी लगती हैं उनके अच्छे लगने में उनका इतना योगदान नहीं रहता, जितना कि उसके और उन चीज़ों के चारो तरफ फैली फ़िज़ा का रहता है.
ऎसे दिन पहले भी आए होंगे, जब वह साथ था. तब हमने साथ साथ बहुत कुछ किया, लेकिन बहुत कुछ नहीं भी किया. शायद इसलिए की तब यह बात मन में नहीं आई होगी.
आज इस नरम मौसम में उसके साथ कहीं शांति से बैठकर किसी हल्की नरम शराब के साथ Philosophy of Love के बारे में ढेरों लोगों के Quotation पर बात करने की इच्छा होती है. शायद, यदि सम्भव हो पाता तो हम अपने उस संग्रह से हर Quotation को पढ़ते और उसकी प्रामाणिकता को स्वयं अपने तथा एक दूसरे भीतर तलाश करने की कोशिश करते. कहीं हम सहमत होते, कहीं असहमत होते, अपनी असहमति में भी एक दूसरे की सहमति को ढूंढते. ऎसा इसलिए सम्भव है क्योंकि हम आमने-सामने एक दूसरे से कभी सहमत नहीं रहते हैं, लेकिन हमारी हर असहमति के पीछे स्वीकार्यता का एक भाव रहता है, जो बाद में सभी असहमतियों को स्वीकार्य बना कर सहमति में बदलता है.
क्या यही कारण है कि आज उससे दूर और अलग रहते हुए उसकी हर असहमति को मैं कहीं न कहीं स्वीकार करता हूँ और उससे सहमत हो जाता हूँ...

जाने अनजाने

तुम्हें,
देखा नहीं, पर अनदेखा नहीं है तू
जाना नहीं, पर अनजाना नहीं है तू
चाहा नहीं, पर अनचाहा नहीं है तू
सुना नहीं, पर अनसुना नहीं है तू
तुमसे,
कुछ कहा नहीं, पर कुछ भी अनकहा नहीं है
तुम,
कहीं नहीं हो, पर हर तरफ हो
सपना हो, पर कल्पना नहीं हो तुम...

Tuesday, January 23, 2007

Image of Mirror

मैं अपने आईने में एक आईना देखता हूँ
यह तुम्हारे घर में टंगा था

और उसमें हम देखते थे

एक दूसरे को...
आईना तुम और मैं,
एक अच्छा फ़्रेम था...

मेरे आईने में जो आईना दिखता है,
उसमे भी तुम्हारे और मेरे चेहरे
साथ साथ दिखते हैं...

लेकिन अभी तुम मुझसे लिपट कर
आईने के सामने खड़ी नहीं हो

शायद मैं सपने में
तुम्हारा आईना अपने आईने में देख रहा था...

या, अपना आईना देख कर
सपना देख रहा था...

कुछ भी हो,
तुम आईने में दिख तो रही थी,
लेकिन तुम वहाँ नहीं थी...

A Dream Under an Imagination


जब मैं एक सुनसान लम्बी सड़क पर
पैदल चलता हूँ,

तो तुम्हे सोचता हूँ
इस उंची नीची घुमावदार सड़क पर

तुम कुछ उन पुराने दिनों के साथ आती हो
जब हम इस खामोश सड़क पर
इसकी निस्तब्धता भंग करते हुए चलते थे...
लेकिन, मैं उस सड़क पर
तुम्हारे बिना कभी पैदल चला ही नही...
अब उस सड़क पर भी भीड़ हो गई है...

Feeling of Remembrence


I remember your touch...

I remember your smell...

Your touch was much more softer than cotton, or butter or Shirisha flower.

Your smell is much more pleasant than any fragrant flower.

In your touch and smell, I always recognise some extraordinary feelings.

That particular span of time,
I feel,
I am in heaven,
where my God is live...

A Mysterious Voice

वह रात के गहरे अंधेरे और निविड़ सन्नाटे में

मेरा नाम , मेरे कान में पुकारती है ...

जब मैं उसकी धीमी और निश्चिंत साँसों को,

उसके सीने से लग कर सुन रहा होता हूँ ...

उसकी आवाज़ कहीं दूर से,

किसी अंधेरी गुफा से आती हुई लगती है ...

उसकी आवाज़ में मेरा नाम आता है,

किन्ही दूसरे अर्थों में,

उसकी आवाज़ में,

मेरा नाम मुझसे अलग हो जाता है...

उसकी आवाज़ की अकुलाहट में

डूबा मेरा नाम,

मुझे बुलाता है.

उसके भीतर कहीं,

उसकी आवाज़ में

मेरा नाम, मेरा नहीं

उसका हो जाता है...

सच तो यह है की

मैं भी मेरा नहीं हूँ,

पता नहीं कब से उसका हूँ...