आजकल,
हर आईना पूछता है मुझसे,
कि वो तेरा हमराज कहाँ गया!
जो कभी तेरे काँधे के कोनों से,
तो कभी तेरे बाहों के घेरे से
मचल कर झाँका करता था!
मन्दिरों की सीढियाँ पूछती हैं मुझसे
कि वो तेरा साथी कहाँ गया,
जो कभी तेरे साथ यहाँ बैठता था!
हर राह पूछती है मुझसे
कि वो तेरा हमसफर कहाँ गया,
जो तेरे साथ यहाँ से गुजरता था!
ये चाँद पूछता है मुझसे
कि वो तेरा हमनज़र कहाँ गया,
जिसकी नज़रों से
कभी तू मेरे नज़ारे देखता था!
दिन के उजाले पूछते हैं मुझसे
कि तेरा वो हमसाया कहाँ गया,
जो कभी तेरे आगे, कभी तेरे पीछे
तो कभी तेरे साथ साथ चलता था!
मेरी अंगुलियाँ पूछती हैं मुझसे
कि वो दाँतों से कुतरे छोटे नाखुनों वाले,
नन्हीं नाजुक अंगुलियों वाले,
हाथ कहाँ गए!
जिनके गरम कोमल निर्दोष स्पर्श
आज भी ज़िन्दा हैं तेरी हथेलियों में!
मेरी रातों के सन्नाटे पूछते हैं मुझसे,
कि वो तेरा हमज़ुबां कहाँ गया,
जिसकी पिछली सर्द रातों की फुसफुसाहट
आज भी गूंजती है तेरे कानों में!
वो कहते हैं
मैं अन्धेरों में चलता हूँ!
मैं पूछता हूँ
ये अन्धेरे मुझे किसने बख्शे...
1 comment:
बहुत सुंदर रचना बधाई
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