हर दिन एक जीने की कोशिश करता हूँ
अपने स्मृति के सीपियों से
तुम्हारी यादों के मोती चुनता हूँ.
अपने स्वपनों में कल्पना के ताने-बाने से
रचित दुनिया में इन मोतियों को सजाता हूँ.
जिस स्वपनिल संसार में
तुम जीना चाहती थी, पूरी एक ज़िन्दगी,
उड़ना चाहती थी, खुले आसमान में,
हँसना चाहती थी एक उन्मुक्त हँसी,
सोना चाहती थी एक बेफिक्र नींद
कहना चाहती थी अपने मन की बात,
बेबाक ढ़ंग से.
गुम होना चाह्ती थी
किसी की बड़ी सी बाँहों में,
करना चाहती थी किसी से प्यार
जो तुम्हारा है
बसाना चाहती थी एक संसार
जिसमें तुम्हारे सपने बसते थे...
सपनों के इस संसार को
रचने, बसाने, संवारने, सजाने की
एक कोशिश में हर दिन मर-मर कर जीता हूँ.
डरता हूँ सपना कहीं खत्म ना हो जाए.
जीने की कोशिश में मरना
मरने के डर से जीना
वक़्त कट रहा है, इन्हीं दो पंक्तियों के बीच...
2 comments:
अजीत जी,
जीने की कोशिश में मरना
मरने के ड़र से जीना
बहुत ही सुन्दर पंक्तियाँ है. बधाई
मुकेश कुमार तिवारी
क्या बात है दोस्त जीने की कोशिश मै मर ना जाना...
हरीश
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