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Rose Exihibition-2010, Bhopal

Friday, October 31, 2008

कनुप्रिया : प्रेम की सशक्त अभिव्यक्ति


देश की आज़ादी के बाद उभरे साहित्यकारों में डॉ. धर्मवीर भारती का एक विशिष्ट स्थान है। 'कनुप्रिया' भारती की अद्वित्तीय काव्य कृति है। कई साहि‍त्य वि‍श्लेषकों ने 'कनुप्रिया' और भारती के नाटक 'अंधायुग' की तुलना एक दूसरे से की है। 'कनुप्रिया' में राधा का प्रेम है। 'अंधायुग' में युद्ध की विनाशलीला का विरोध है। कविता की विधा में भारती के भावुक और रोमांटि विचारों का स्पष्ट दर्शन होता है। भारती के अधिकांश साहि‍त्य में भावुकता और रोमांस का पुट है। उनके सारे चिंतन और दर्शन में भी यह बात साफ झलकती है। 'कनुप्रिया' भारती के मौलि स्वभाव का दर्पण है। 'कनुप्रिया' की राधा कृष्ण को प्या करती है, लेकि वह कृष्ण के युद्धरत रूप का विरोध करती है। इस कृति में भारती ने राधा के माध्यम से कृष्ण द्वारा अर्जुन को दि गए गीता के उपदेशों को प्रेम के सामने तुच्छ बताते हुए उनकी सत्यता को भी चुनौती दे दी है।
'अज्ञेय' ने 'कनुप्रिया' को भारती की 'बुद्धिगत उपलब्धि' माना है। यहाँ बुद्धिपक्ष पर रागात्म कृतिका जबरदस्त प्रभाव है। 'कनुप्रिया' इसी रागात्मक पक्ष की बहुत ही भावुक और सशक्त अभि‍व्यक्ति है। प्रभाकर श्रोत्रिय ने 'कनुप्रिया' को भारती की शीर्षस्थ कृतिबताया है।
डॉ. धर्मवीर भारती बीसवीं सदी के हि‍न्दी साहि‍त्य के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। उनकी कृतियों में 'कनुप्रिया' भी ऎसा ही एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर है।

Thursday, October 30, 2008

धुन्ध के पार

दिन के दूसरे पहर का अवसान होने वाला है, तीसरे पहर की शांत और नरम धूप अपने होने का आभास दे रही है. भोपाल और मार्च के महीने में दो पहरों के इस संक्रमण काल की बेला में धुन्ध की उपस्थिति एक आश्चर्य से कम नहीं लगती है. 14 फरवरी 'वेलेंटाइन डे' के बाद से ही भोपाल लगातार गरम होने लगा था. मार्च 2 और 3 तक तो इतना गरम हो गया था कि सर्दी के दिनों की बातें अतीत की बातें लगने लगीं थी. लेकिन कल तक जिस सूर्य की किरणें दिन के इस समय घोर कष्टप्रद लगती थीं, वही अब सुखद लग रही हैं . जो धूप कल तक चमकती थी, वह आज ऎसी लग रही है मानो किसी काले पारदर्शी काँच के टुकड़े से छन कर आ रही है.
पूरे वातावरण में एक अजीब तरह की शांति छायी है और इस शांति के उपर धुन्ध. कुछ आवाज़ें आती हैं लेकिन ऎसा लगता है ये आवाज़ें भी कहीं किसी धुन्ध से छन कर धुन्धली होती हुई, हवा में तिरती हुई आ रही हैं.
यह धुन्ध, इसके पीछे से आती धुन्धली आवाज़ें और उनके पीछे दिखता अपना धुन्धला अतीत - बार-बार यह कहता है कि उसका भी वर्तमान था और इस वर्तमान में भी उसकी जगह है. अतीत हमेशा ही प्यारा, सुखद और मनभावन लगता है, चाहे वह कितनी ही बड़ी त्रासदी क्यों न हो. क्या अतीत भी सुखद इसीलिए नहीं लगता है कि वह भी कहीं (स्मृतियों) से छन कर आता है, इसकी तीव्रता भी धुन्ध से छनकर आती सूरज की किरणों की भाँति नरम हो जाती है, वह अपने वर्तमान की पूर्ण प्रचंड तीव्रता के साथ इस वर्तमान में नहीं आता है...
वातावरण के धुन्ध से परे अतीत के गहरे धुन्धलके में जहाँ वह काफी धुन्धला दिखता है, लेकिन उसकी उपस्थिति का एहसास उतना ही सजीव जान पड़ता है, शायद इतना कि इस दो पहरों के बीच की बेला में उसके स्पर्शों का भ्रम होता है.
ऎसा मौसम उसे बहुत पसन्द है. इस मौसम में उसका मिज़ाज काफी रूमानी रहता है, हर चीज़ अच्छी लगती है उसे. जो चीज़ें उसे अच्छी लगती हैं उनके अच्छे लगने में उनका इतना योगदान नहीं रहता, जितना कि उसके और उन चीज़ों के चारो तरफ फैली फ़िज़ा का रहता है.
ऎसे दिन पहले भी आए होंगे, जब वह साथ था. तब हमने साथ साथ बहुत कुछ किया, लेकिन बहुत कुछ नहीं भी किया. शायद इसलिए की तब यह बात मन में नहीं आई होगी.
आज इस नरम मौसम में उसके साथ कहीं शांति से बैठकर किसी हल्की नरम शराब के साथ Philosophy of Love के बारे में ढेरों लोगों के Quotation पर बात करने की इच्छा होती है. शायद, यदि सम्भव हो पाता तो हम अपने उस संग्रह से हर Quotation को पढ़ते और उसकी प्रामाणिकता को स्वयं अपने तथा एक दूसरे भीतर तलाश करने की कोशिश करते. कहीं हम सहमत होते, कहीं असहमत होते, अपनी असहमति में भी एक दूसरे की सहमति को ढूंढते. ऎसा इसलिए सम्भव है क्योंकि हम आमने-सामने एक दूसरे से कभी सहमत नहीं रहते हैं, लेकिन हमारी हर असहमति के पीछे स्वीकार्यता का एक भाव रहता है, जो बाद में सभी असहमतियों को स्वीकार्य बना कर सहमति में बदलता है.
क्या यही कारण है कि आज उससे दूर और अलग रहते हुए उसकी हर असहमति को मैं कहीं न कहीं स्वीकार करता हूँ और उससे सहमत हो जाता हूँ...

जाने अनजाने

तुम्हें,
देखा नहीं, पर अनदेखा नहीं है तू
जाना नहीं, पर अनजाना नहीं है तू
चाहा नहीं, पर अनचाहा नहीं है तू
सुना नहीं, पर अनसुना नहीं है तू
तुमसे,
कुछ कहा नहीं, पर कुछ भी अनकहा नहीं है
तुम,
कहीं नहीं हो, पर हर तरफ हो
सपना हो, पर कल्पना नहीं हो तुम...