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Rose Exihibition-2010, Bhopal

Thursday, October 30, 2008

धुन्ध के पार

दिन के दूसरे पहर का अवसान होने वाला है, तीसरे पहर की शांत और नरम धूप अपने होने का आभास दे रही है. भोपाल और मार्च के महीने में दो पहरों के इस संक्रमण काल की बेला में धुन्ध की उपस्थिति एक आश्चर्य से कम नहीं लगती है. 14 फरवरी 'वेलेंटाइन डे' के बाद से ही भोपाल लगातार गरम होने लगा था. मार्च 2 और 3 तक तो इतना गरम हो गया था कि सर्दी के दिनों की बातें अतीत की बातें लगने लगीं थी. लेकिन कल तक जिस सूर्य की किरणें दिन के इस समय घोर कष्टप्रद लगती थीं, वही अब सुखद लग रही हैं . जो धूप कल तक चमकती थी, वह आज ऎसी लग रही है मानो किसी काले पारदर्शी काँच के टुकड़े से छन कर आ रही है.
पूरे वातावरण में एक अजीब तरह की शांति छायी है और इस शांति के उपर धुन्ध. कुछ आवाज़ें आती हैं लेकिन ऎसा लगता है ये आवाज़ें भी कहीं किसी धुन्ध से छन कर धुन्धली होती हुई, हवा में तिरती हुई आ रही हैं.
यह धुन्ध, इसके पीछे से आती धुन्धली आवाज़ें और उनके पीछे दिखता अपना धुन्धला अतीत - बार-बार यह कहता है कि उसका भी वर्तमान था और इस वर्तमान में भी उसकी जगह है. अतीत हमेशा ही प्यारा, सुखद और मनभावन लगता है, चाहे वह कितनी ही बड़ी त्रासदी क्यों न हो. क्या अतीत भी सुखद इसीलिए नहीं लगता है कि वह भी कहीं (स्मृतियों) से छन कर आता है, इसकी तीव्रता भी धुन्ध से छनकर आती सूरज की किरणों की भाँति नरम हो जाती है, वह अपने वर्तमान की पूर्ण प्रचंड तीव्रता के साथ इस वर्तमान में नहीं आता है...
वातावरण के धुन्ध से परे अतीत के गहरे धुन्धलके में जहाँ वह काफी धुन्धला दिखता है, लेकिन उसकी उपस्थिति का एहसास उतना ही सजीव जान पड़ता है, शायद इतना कि इस दो पहरों के बीच की बेला में उसके स्पर्शों का भ्रम होता है.
ऎसा मौसम उसे बहुत पसन्द है. इस मौसम में उसका मिज़ाज काफी रूमानी रहता है, हर चीज़ अच्छी लगती है उसे. जो चीज़ें उसे अच्छी लगती हैं उनके अच्छे लगने में उनका इतना योगदान नहीं रहता, जितना कि उसके और उन चीज़ों के चारो तरफ फैली फ़िज़ा का रहता है.
ऎसे दिन पहले भी आए होंगे, जब वह साथ था. तब हमने साथ साथ बहुत कुछ किया, लेकिन बहुत कुछ नहीं भी किया. शायद इसलिए की तब यह बात मन में नहीं आई होगी.
आज इस नरम मौसम में उसके साथ कहीं शांति से बैठकर किसी हल्की नरम शराब के साथ Philosophy of Love के बारे में ढेरों लोगों के Quotation पर बात करने की इच्छा होती है. शायद, यदि सम्भव हो पाता तो हम अपने उस संग्रह से हर Quotation को पढ़ते और उसकी प्रामाणिकता को स्वयं अपने तथा एक दूसरे भीतर तलाश करने की कोशिश करते. कहीं हम सहमत होते, कहीं असहमत होते, अपनी असहमति में भी एक दूसरे की सहमति को ढूंढते. ऎसा इसलिए सम्भव है क्योंकि हम आमने-सामने एक दूसरे से कभी सहमत नहीं रहते हैं, लेकिन हमारी हर असहमति के पीछे स्वीकार्यता का एक भाव रहता है, जो बाद में सभी असहमतियों को स्वीकार्य बना कर सहमति में बदलता है.
क्या यही कारण है कि आज उससे दूर और अलग रहते हुए उसकी हर असहमति को मैं कहीं न कहीं स्वीकार करता हूँ और उससे सहमत हो जाता हूँ...

15 comments:

बलबिन्दर said...

ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है

Prakash Badal said...

प्रयास अच्छा है जारी रखें

Amit K Sagar said...

आपके ब्लॉग का भ्रमण सुखदाई रहा. ब्लोगिंग जगत में आपका स्वागत है. उम्मीद है निरंतर लिखते रहेंगे व दूसरों को भी मार्गदर्शित करेंगे.
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मेरे ब्लॉग पर आप सदर आमंत्रित हैं. धन्यवाद.
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अमित के. सागर

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर said...

aanand aa gya
narayan narayan

प्रदीप मानोरिया said...

सच कहा आपने .
एक निवेदन हटा दो यह बाधा शब्द पुष्टिकरण की .. मेरे ब्लॉग पर दस्तक दीजिये अच्छा लगे तो टीका भी अवश्य करें

रचना गौड़ ’भारती’ said...

सच कहा आपने |

Ajit Singh said...

आप सभी का धन्यवाद.

प्रदीप जी, शब्द पुष्टीकरण की बाधा हटा दी गई है.

कोशिश करुंगा कि अपने मन की उथल पुथल आप लोगों के साथ निरंतर साझा करता रहूं.

Anonymous said...

Who is this person whose rejection you are able to accept?

Anonymous said...

I mean to ask that unless you experience this, you can not write in this way. So, being an author my self, when I read some books, I wonder whether people would be just imaging things or they themselves experience what they write. Or, it is like 50/50. Half truth, half imagination. Not sure.

Ajit Singh said...

श्री/सुश्री अज्ञात, यदि सम्भव हो तो आप अपना परिचय दे दें. इससे मुझे आपके सवालों के जवाब देने में आसानी होगी. रही बात मेरे इस लेखन की तो मैं यहाँ कहना चाहूंगा कि आज के आलोचक की नज़र में रचना जीवित है, रचनाकार मर चुका है. यह दीगर बात है कि मैं इससे कितना इत्तेफ़ाक रखता हूँ, लेकिन मैं इस सिद्धांत को नकारता भी नहीं हूँ. लेखक जो कुछ भी लिखता है वो उसका अपना भोगा हुआ अनुभव होता है. अब यहाँ यह बिल्कुल जरूरी नहीं है कि लेखक उसे मुर्त रूप में ही भोगे, वह यदि कुछ सोच रहा है तो उसे वह उस समय भोग रहा होता है और यह उसका नितांत निजी अनुभव होता है.
स्मृति के बिना लेखन हो नहीं सकता, स्मृति ही लेखन का आधार है. लेखक अपने अनुभवों के पिटारे से अपनी स्मृति के आधार पर कुछ चीजें चुनता है और उन्हें आपके और मेरे सामने शब्दों के माध्यम से पेश कर देता है. यहाँ कुछ भी आधा-आधा नहीं होता है, वो जो कुछ भी देता है पूरा देता है. हाँ, वह कभी भी निर्णय नहीं सुनाता है, उसके लिए आख़िरी सत्य कुछ भी नहीं होता है.
मैनें अपने सामर्थ्य के अनुसार अपनी बात रखने की कोशिश की है. आपने इसे पढ़ा और गम्भीरता से लिया, इसके लिए आपका तहे दिल से धन्यवाद. उम्मीद करता हूँ यह चर्चा जारी रहेगी.

Anonymous said...

Thanks for the quick response. I wish you all the luck in your pursuit of words.

Anonymous said...

Frankly, I am not able to understand your Hindi as it is not my mother tongue. I understand that, but, I think your Hindi is too oblivious. Though, I can feel it, but not understand it. While you say, Rachana jivit hai, rachnakar mar chuka hai, does not make sense. Well, I am not of that stautre perhaps. But, anyways, it was a nice accident to see this kind of "oblivious" hindi.

Ajit Singh said...

"रचना जीवित है, रचनाकार मर चुका है" इस वाक्य से मेरा मतलब है कि बहुत से critic ये मानते हैं कि रचना को रचनाकार के इतिहास से अलग कर के देखना समझना चाहिए. T.S. Eliot की Objective co-relative theory बहुत हद तक इस बात को स्वीकार करती है. वे कहते हैं कि "There is always a separation between the man who suffers and the artist who creates; and the greater the artist the greater the separation."

Anonymous said...

Well, Eliiot himself was the victim of nervous breakdown, and it is obvious that he would believe in these things and also propagate his thoughts. I think, where Eliot and company's reach ends, Rajnish starts. Right now, I am reading Rajnish, and I find him amazing. He opines that you need to allow all the pain and suffering that is going within. There is no need to curb it. It will automatically cleanse your entire being and there will emerge a new being which will be in tune with the nature. He does not propogate to write poetery, but instead he helps make life in itself a poetery. If interested, read Rajnish.

Anonymous said...

Oops. I made two spelling mistakes. Please read those correctly. My wife is nagging me, so, getting afraid of her as it is Sunday and it is her time. :) Bye.. take care...